اتوار، 30 اکتوبر، 2016

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★ *निकाह_तलाक_हलाला_ख़ुला* ★
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_*हिन्दू और दूसरे धर्म के भाईयो* के लिए पोस्ट, जो लम्बी है पर पढ़ें तो इस इस्लामी व्यवस्था से संशय, शक, शंका दूर हों जायेगी और इस्लामी व्यवस्था की जानकारी मिलेगी।

*भारतीय संविधान* ही नहीं पूरी *दुनिया के व्यवस्था* की पड़ताल कर लीजिए हर जगह यदि कुछ सुविधाएं दी गई हैं तो उन सुविधाओं के गलत इस्तेमाल पर दंड का प्रावधान भी किया गया है। इसे *चेक ऐंड बैलेंस* कहते हैं कि कोई किसी नियम या अधिकार का कोई गलत फायदा ना उठा ले।
*आज़ादी के पहले या बाद में मुसलमानो* की यह बहुत बड़ी नाकामयाबी रही है कि वह इस देश में *इस्लाम* के सही रूप को प्रस्तुत नहीं कर सके। मौलवी, मौलाना जितना चंदा वसूलने में अपना प्रयास दिखाते हैं उसका एक 1% भी _इस्लाम के सही रूप को सामने लाने की कोशिश करते तो अन्य मजहब के लोगों में इस्लाम के खिलाफ झूठा प्रचार कर पाना किसी के लिए सभंव नहीं होता , सही रूप से प्रस्तुत करने का अर्थ धर्मांतरण से नहीं बल्कि इस्लाम में दी गई व्यवस्था को तर्क और व्यवहार की कसौटी पर सभी समाज के लोगों के सामने रखना होता._  यह व्यवस्था इस कारण से है और आज के दौर में इसके यह फायदे हैं । इसीलिये इस्लाम धर्म और इसकी व्यवस्थाओं के बारे में झूठी कहानी किस्से गढ़ कर *कुछ तथाकथित सामाजिक संग़ठन जो बड़े धर्म विशिष्ट के आड़ में* इस देश के लोगों को *इस्लाम* के बारे में नफरत, बरगलाने और हृदय में घृणा भरने में सफल रहे है।
_दरअसल इस लेख को पुनः पोस्ट करने का कारण यह है कि मेरी तमाम पोस्ट हिन्दू भाई जो *"निकाह , तलाक और हलाला"* के बारे में गलत और अज्ञानता भरा कमेन्ट करते है उनका मार्गदर्शन करना_  एक हिन्दू मित्र का कमेंट था जिसमें उन्होंने इस्लाम की एक व्यवस्था *"हलाला"* पर एक असभ्य टिप्पणी कुछ यूँ की, "हलाला वो है जो तलाक दी गई बीवी दूसरे व्यक्ति से विवाह करके उसका बिस्तर गर्म करे और तब तक करे जब तक कि उस नये पति का मन ना भर जाए और वह तलाक ना दे दे और फिर उसके तलाक देने के बाद पहला पति उस महिला से विवाह कर सकता है"।
ज़ाहिर सी बात है कि शब्द बेहद गंदे हैं और हालही में देश में पनप चुकी एक संस्कृति का उदाहरण मात्र ही है। तब सोचा कि अपने सभी हिन्दू मित्रों को इसकी व्याख्या करके हलाला का अर्थ समझाऊँ , क्या पता संघी साहित्य पढ़ने के बाद उनके मनमस्तिष्क में भी यही भ्रम हो। हालाँकि "संघी" खुद के मन में घर कर गयी इस्लाम के प्रति ज़हर से पक्षपात और नफरत में अंधे होकर संघी "इस्लाम" पर टिप्पणी करते हैं , मेरा अनुभव रहा है कि *मुस्लिम ऐसी टिप्पणियाँ कभी "सनातन धर्म" और उसकी मान्यता तथा विश्वासों पर नहीं करता है*। खैर विषय पर आते हैं ,

*# निकाह :-*___________
इस्लाम में विवाह की व्यवस्था एक "चेक ऐंड बैलेंस" के आधार पर है जहाँ  _निकाह एक अनुबंध (एग्रीमेंट) होता है जिसमें लड़के और लड़की की रजामंदी ली जाती है_,  लड़की के बाप को यह अधिकार है कि वह अपनी बेटी के भविष्य की सुरक्षा के लिए कोई भी *"मेहर देन"* निर्धारित कर सकता है , और इसकी ज़रूरत भी इसी लिये है कि यदि निकाह ( एग्रीमेंट) टूटा तो *मेहर* उस लड़की के भविष्य को सुरक्षित करेगा।
*यह सब कुछ लिखित में होता है और इसके दो गवाह और एक वकील होते हैं जो सामान्यतः लड़की वालों की तरफ से रहते हैं. जिससे कि लड़की के साथ अन्याय ना हो , धोखा ना हो , सब तय होने के बाद सबसे पहले लड़की से निकाह पढ़ाने की इजाज़त उन्ही वकील और गवाहों के सामने ली जाती है और यदि लड़की ने इजाजत देकर एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर कर दिया तब निकाह की प्रक्रिया आगे बढ़ती है नहीं तो वहीं समाप्त हो जाती है, सब कुछ सर्वप्रथम लड़की के निर्णय पर ही आधारित होता है.*
लड़की की इजाज़त के बाद पूरे बारात और महफिल में "मेहर की रकम" को एलान करके सभी शर्तों गवाहों और वकील की उपस्थिति में निकाह पढाया जाता है जो अब लड़के के उपर है कि वह कबूल करे या ना करे , यदि इन्कार कर दिया तो मामला खत्म परन्तु निकाह कबूल कर लिया तो फिर उस एग्रीमेंट पर वह हस्ताक्षर करता है और सभी गवाह वकील और निकाह पढ़ाने वाले मौलाना हस्ताक्षर करके एक एक प्रति दोनो पक्षों को दे देते हैं और इस तरह निकाह की एक प्रक्रिया पूरी होती है ।
ध्यान रहे की लड़की को मिलने वाले मेहर की रकम तुरंत बिना विलंब के मिलना चाहिए , और बिना उसका मेहर दिये उस लड़की को छूने का भी अधिकार उस लड़के को नहीं है । और लड़की के उस "मेहर" पर उसके पति का भी अधिकार नहीं है , वह उस लड़की की अपनी "भविष्यनिधि" है।

*# तलाक :-*___________
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निकाह के बाद जीवन में यदि ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हो जाती है *पति पत्नी को एकसाथ जीवन जीना मुश्किल है तो आपसी सहमति से तलाक की प्रक्रिया अपनाई जाती है जो तीन चरण में होती है।*
● *पहले तलाक* के बाद दोनों के घर वाले सुलह सपाटे का प्रयास करते हैं और पति-पत्नी में जो कोई भी समस्या हो उससे सुलझा कर वैवाहिक जीवन सामान्य कर देते हैं , अक्सर मनमुटाव या कोई कड़वाहट आगे के भविष्य की परेशानियों को देखकर दूर हो ही जाती है और यदि नहीं हुई और लगा कि अब जीवन साथ संभव नहीं तो,
● *दूसरा तलाक* दिया जाता है पर वह भी दोनो की सहमति से ही । दूसरे तलाक के बाद गवाह वकील या समाज के अन्य असरदार लोग बीच बचाव करते हैं और जिसकी भी गलती हो मामले को सामान्य बनाने की कोशिश करते हैं , अक्सर अंतिम चेतावनी देखकर और बिछड़ने के डर से वैवाहिक जोड़े गलतफहमी दूर कर लेते हैं या समझौता कर लेते हैं और यदि सब सामान्य हो गया तो फिर से दोनो में "निकाह" उसी प्रकिया के अनुसार होता है क्योंकि दो तलाक के बाद निकाह कमज़ोर हो जाता है।
● *तीसरा तलाक* यदि सुलह समझौता नहीं हुआ तो अंतिमतः देकर संबंध समाप्त कर दिया जाता है। इस *तीन तलाक की सीमा लगभग 2•5 महीने होती है , अर्थात लड़की के तीन "माहवारी" की अवधि* और पहला तलाक पहली माहवारी , दूसरा तलाक दूसरी माहवारी तथा तीसरा तलाक इसी तरह तीसरी माहवारी के बाद दिया जाता है , वह इस लिए होती है कि अक्सर *"बच्चे"* की संभावना दोनों में प्रेम को पुनः पैदा कर सकती है और अलग होने का फैसला बदला जा सकता है । ध्यान रखें कि, *इस्लाम अंतिम समय तक विवाह ना टूटने की संभावना को जीवित रखता है.*
सामान्यतः तलाक के बाद लड़की अपने माँ बाप के यहाँ जाती है और *"इद्दत" का तीन महीना 10 दिन बिना किसी "नामहरम" (पर पुरुष) के सामने आए पूरा करती है।*  संघी साहित्य इसे औरतों के ऊपर इस्लाम का अत्याचार बताता है जबकि इसका आधार यह है कि यदि वह *लड़की या महिला "गर्भ" से है* तो वह शारीरिक रूप से स्पष्ट होकर पूरे समाज के सामने आ जाए और *उस महिला के चरित्र पर कोई उंगली ना उठा पाए और नाही उसके नवजात शिशु के नाजायज़ होने पर.*
इद्दत की अवधि पूरी होने के बाद वह लड़की अपना जीवन अपने हिसाब से जीने के लिए स्वतंत्र है। और अक्सर ऐसी तलाक शुदा लड़कियों का पुनः विवाह खानदान के लोग कुछ महीनों अथवा साल दो साल में करा ही देते हैं और इसी छोटी अवधि में उसे निकाह मे मिले "मेहर" का धन उपयोग में आता है ।
ध्यान दीजिए कि *इस्लाम मे "तलाकशुदा" का पुनर्विवाह और "विधवा विवाह" कराना बेहद पुण्य का काम माना गया है* और ऐसे विवाह को ही अपनी कौम में इसे मान्य बनाने के लिए *हज़रत मुहम्मद (सल्ललाहु अलैह व सल्लम)* ने *खुद ही ऐसी "विधवा और तलाकशुदा महिला" से विवाह करके उदाहरण प्रस्तुत किया है और इस कारण से ऐसा करना "सुन्नत" है जो बेहद पुण्य का काम है*. सदैव ही यदि स्त्री की इच्छा होती है तो उसका पुनर्विवाह कुछ ही दिनों में हो जाता है , ना तो उसे कोई कुलटा , कलमुही कहता है और ना ही कोई उसके विवाह टूटने का जिम्मेदार उसे मानता है । 

*# हलाला :-*___________
तलाक की प्रक्रिया इतनी सुलझी हुई और समझौतों की गुंजाइश समाप्त करते हुए है कि तलाक के बाद पुनः विवाह की गुंजाइश नहीं रहती क्युँकि बहुत कड़वाहट लेकर संबंध टूटते हैं। एक दूसरे को देखना तक पसंद नहीं करते अलग होने वाले तो पुनः विवाह का तो सोचना भी असंभव है।
एक और तरह का तलाक की संभावना होती है , वह होती है जल्दबाजी में या बिना सोचे समझे हवा हवाई तरीके से तलाक दे देना , या पति पत्नी की छोटी मोटी लड़ाई में तलाक दे देना , या गुस्से में आकर तलाक दे देना। सामान्यतः ऐसी स्थिति में पति-पत्नी में प्रेम और आपसी समझ तो होती है पर,
*क्षणिक आवेश में आकर पुरुष तलाक दे देते हैं , लोग ऐसा ना करें और इसे ही रोकने के लिए "हलाला" की व्यवस्था की गई है*
कि जब गलती का एहसास हो तो समझो कि तुमने क्या खोया है , और जीवन भर घुट घुट कर रहो क्युँकि हलाला वह रोक पैदा करता है कि गलती का एहसास होने पर फिर कोई उसी पत्नी से विवाह ना कर सके।
*ध्यान दीजिए कि "हलाला" तलाक को रोकने का एक ऐसा बैरियर है जिसे सोचकर ही पुरुष "तलाक" के बारे में सोचना ही बंद कर देता है , अन्यथा तलाक और फिर से शादी की घटनाओं की बाढ़ आ जाए और तलाक एक मजाक बन कर रह जाए ।*
मैने आज तक अपने जीवन तो छोड़िए, *मुस्लिम समाज में अपने माता-पिता, नाना-नानी के मुँह से भी "हलाला" की प्रक्रिया पूरी करके किसी का उसी से पुनः विवाह हुआ है ऐसा नहीं सुना ना देखा है*, यहाँ तक कि बी आर चौपड़ा की इसी विषय पर बनी बेहतरीन *फिल्म "निकाह"* भी तलाकशुदा सलमा आगा (निलोफर) , अपने दूसरे विवाह (राज बब्बर से) बाद पहले पति (दीपक पराशर) से निकाह को इंकार कर देती है ।
*"हलाला" मुख्य रूप से महिलाओं की इच्छा के उपर निर्भर एक प्रक्रिया है*  जिसमे वह तलाक के बाद अपनी मर्जी से खुशी खुशी किसी और बिना किसी पूर्व योजना के अन्य पुरुष से विवाह कर लेती है और फिर दूसरे विवाह में भी ऐसी परिस्थितियाँ पैदा होती हैं कि यहाँ भी निकाह , तलाक की उसी प्रक्रिया के अनुसार टूट जाता है तब ही वह इद्दत की अवधि के बाद पूर्व पति के साथ पुनः निकाह कर सकती है वह भी उसकी अपनी खुशी और मर्जी से ।
हलाला इसलिए नहीं कि कोई पुर्व पति से विवाह करने के उद्देश्य के लिए किसी अन्य से विवाह करके तलाक ले और यदि कोई ऐसा सोच कर करता है तो वह गलत है गैरइस्लामिक है और हलाला का दुस्प्रयोग है । परन्तु *सच तो यह है कि इस दुस्प्रयोग और गलती का भी कोई उदाहरण नहीं.*
*यह सारी (निकाह , तलाक , हलाला) प्रक्रिया स्त्रियों के निर्णय के उपर होता है और इसके लिए उस महिला पर कोई ज़बरदस्ती नहीं कर सकता* और कम से कम हर समाज की महिला तो ऐसी ही होती है कि वह बार बार पुरुष ना बदलें , पुरुष तो खैर कुछ भी कर सकते हैं ।
तो हलाला अनिवार्य होने के कारण पूर्व पति के लिए अपनी वह पत्नी पाना लगभग असंभव हो जाता है और वह पूर्व पत्नी उसके लिए "हराम" हो जाती है ।
*"हलाला" इस्लाम का दिया औरतों का "सुरक्षा का कवच" है* कि पति तलाक देने के पहले हजार बार सोचे और जल्दबाजी में या छोटे मोटे गुस्से में अपना बसा बसाया घर ना उजाड़े और यदि उसने गलती की तो हलाला के कारण उसे फिर से ना पाने की सजा भुगते और घुट घुट कर मरे ।
फिर समझ लीजिए कि हलाला एक स्वभाविक प्रक्रिया है जो इस नियत से नहीं की जाती कि फिर से "पहले" पति पत्नी एक हों बल्कि महिला का दूसरा विवाह किसी अन्य कारणों से विफल हुआ तभी वह पहले पति से विवाह कर सकती है, अर्थात यह कि वह महिला अब अपने पहले पूर्व पति के लिए "हलाल" है और इसी लिए *महिला के इसी तीन बार निकाह की प्रक्रिया को "हलाला" कहते हैं।*
इस्लाम महिलाओं के चरित्र और सोच को जानता है कि कोई भी महिला ऐसा नहीं करेगी कि वह पूर्व पति से पुनः विवाह करने के उद्देश्य से किसी अन्य पुरुष से विवाह करे और फिर तलाक ले , तलाक हुआ मतलब , पुनः पति-पत्नी होने की संभावना "हलाला" ने समाप्त कर दी । एक और तर्क है हलाला के संबंध में कि कोई भी व्यक्ति , कितना भी गिरा हुआ हो अपनी पत्नी से कितनी भी घृणा करता हो , वह उसे किसी और पुरुष के साथ "वैवाहिक बंधन" में नहीं देख सकता । और पुरुष की यही सोच "हलाला" से डरने के लिए और प्रभावी बनाती है कि "तलाक" की प्रक्रिया के पहले 100 बार सोचो ।
ध्यान रखें कि यह धार्मिक व्यवस्था है जो पति-पत्नी के वैवाहिक भविष्य के लिए बनाई गयी है और इसे कोई दुरुपयोग करता है तो वह वैसा ही है जैसे देश के संविधान के कानून का उल्लंघन होता है तो उसे गैरकानूनी कहते हैं वैसे ही इसका दुरुपयोग "गैरइस्लामिक" है ।
*"निक़ाह , तलाक , हलाला" महिला की इच्छा पर ही है और ऐसा करने के लिए उसे बाध्य करना "गैरइस्लामिक" है गुनाह है।*

*# खुला :-*___________
एक बात और ध्यान रखें कि जैसे पति तलाक दे सकता है वैसे ही *पत्नी भी अपना वैवाहिक जीवन तोड़ने के लिए अपने पति से  "खुला"  प्रक्रिया अपना कर अलग हो सकती है और वह उसके अधिकार में है.*
आशा करता हूँ कि, अब सब स्पष्ट हो गया होगा । इस्लाम की इसी व्यवस्था के कारण मुसलमानों के घरों में बहुएँ बेटियों को जलाया , मारा अथवा मारकर लटकाया नहीं जाता क्युँकि अलगाव की प्रक्रिया बेहद आसान है ना कि,
*"अदालत" की तरह जटिल जहाँ पति-पत्नी के पूरे परिवार के इज़्ज़त की धज्जियाँ पति-पत्नी के अलगाव के लिए ही उड़ा दी जाती हैं.*
पत्नी का दूसरे पुरुष से नाजायज़ संबंध बताया जाता है और पति को नपुंसक । और इसी बेईज़्ज़ती से बचने के लिए बहुएँ मार या मरवा दी जाती हैं।

मित्र शेयर करेंगे तो इस बारे में फैली भ्रांतियां दूर होंगी।